Posts

Showing posts from October, 2017
वजूद की, तलब ना कर। हक है तेरा, रूह तक,सफर तो कर....।
हर बार सुलझा कर रखता हूँ ,फिर भी उलझी हुई मिलती है , ऐ ज़िन्दगी तू ही बता ज़रा ,तेरा मिजाज़  मेरे इयरफोन सा क्यूँ है...?

समझदारी

ख़ून अपना हो या पराया हो नस्ले-आदम का ख़ून है आख़िर जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में अमने आलम का ख़ून है आख़िर बम घरों पर गिरें कि सरहद पर रूहे-तामीर ज़ख़्म खाती है खेत अपने जलें या औरों के ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है टैंक आगे बढें कि पीछे हटें कोख धरती की बाँझ होती है फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग जिंदगी मय्यतों पे रोती है इसलिए ऐ शरीफ इंसानो जंग टलती रहे तो बेहतर है आप और हम सभी के आँगन में शमा जलती रहे तो बेहतर है।
लिख दूं सब कुछ...तो फायदा क्या? कभी तुम वो भी तो पढो... जो हम लिख नहीं पाते।।

चलो ......

चलो, यादों के साथ टहलने चले चलो, पलकों के साथ झपकने चले चलो, ख़्वाबों के साथ सोने चले चलो, फूलों के साथ महकने चले चलो, कंगन के साथ खनकने चले चलो, गीतो के साथ गुनगुनाने चले चलो, कहानियों के साथ कुछ सुनने,सुनाने चले चलो, क़लम के साथ लिखने,लिखाने चले चलो, किसी ग़ैर को अपनाने चले चलो, अब हम और तुम मिलने चले चलो, यादों के साथ टहलने चले

दौर-ए-उम्र

एक उम्र वो थी,की जादू में भी यकीन था। एक उम्र ये है,की हक़ीक़त पर भी शक़ है।।

हद-अनहद

रो दूँ अगर तुम्हारे सामने तो समझ जाना तुम। कि मेरी बर्दास्त करने की वो आखरी हद थी।

वक्त

हाकिमे वक्त ने, ये कैसा हिंदूस्तान कर दिया। बे जान इमारत को, हिंदू मुसलमान कर दिया।।

एहसास

छुपे छुपे से रहते हैं, सरेआम नहीं हुआ करते। कुछ रिश्ते बस एहसास होते हैं, उनके नाम नहीं हुआ करते।।
---बिखरा-सा-ख़्याल--- शाम का सूरज जब अपनी लालिमा बिखेर रहा हो। उस गुन गुनी धूप में तुमको देखना तुम्हारी बातों,आदतों और शरारतों सबको नोटिस करके तुमको निहारना अच्छा लगता है। इस अच्छे लगने न लगने को अगर प्यार की संज्ञा देना प्यार है।  हाँ!कुछ दिनों से मैं प्यार में हूँ! हाँ!कुछ दिनों से मेरी नींद में अक्सर तुम्हारा आना जाना लगा सा रहता है। बात बेबात पर तुमको महसूस करना भी सीख रहा हूँ। पर! इन सबके बीच न जाने क्यों? एक बात का डर हमेशा बना रहता है। तुमको खोने का डर ये इकलौता डर जिसका सामना करने से, "मैं खुद डरता हूँ।" बस ये डर जो मुझे तुमसे दूर ले जाए। इसे हकीकत में तब्दील मत होने देना.....।।

,जमीनी-हक़ीक़त

चोरी न करें,झूठ न बोलें तो क्या करें, चूल्हे पे क्या, उसूल पकाएंगे शाम को।।

अधूरा-इश्क

बचपन बस्तों में शोर रिश्तो में दर्द किश्तो में मिला ! इश्क़ भी निकल लिया पतली गली से बाहों में और की, कई दफे, रास्तो में मिला!

इश्क

इश्क़ वो है, जब मैं शाम होने पर मिलने का वादा करूँ, और वो दिन भर... सूरज के होने का अफ़सोस करे.

.......सिर्फ तुम

 खफा होना इतराना फिर लिपट जाना...!! तीनो रंगों में बहुत जंचती हो तुम...!!!!

शाम-ए-फुर्सत

 मिले मुझे भी अगर कोई शाम फ़ुर्सत की मैं क्या हूँ, कौन हूँ, सोचूँगा अपने बारे में
ا गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है 'अमीर' क़द्र खो देता है हर रोज़ का आना जाना

...

रौनकें कहां दिखती हैं? अब पहले जैसी अखबार के इश्तिहार बतातें है की कोई त्यौहार आया है

गूगल-नामा

खुद को खुद के अंदर ढूंढते रहिये ज़नाब, बाकी दुनिया तो गूगल पे भी मिल जाती है।

आस

खुल जाए दरों दीवार आज कुछ ऐसा हो दिख जायें सारे राज़ आज कुछ ऐसा हो तकिये के अंदर सूखा पड़े हुकूमत ज़ुल्फ़ों की सर चढ़े वो आके बाहों में भर जाए आज कुछ ऐसा हो बंद किताबों के सूखे गुलाब  मैखाने की नई शराब वो यूँ लिपट के बदहवास हो जाये  आज कुछ ऐसा हो तस्वीर निकल के आंखों की अरमानों के साथ उन आहों की बहती नदियों को एक धार मिल जाये आज कुछ ऐसा हो खुल जाए दरों दीवार आज कुछ ऐसा हो दिख जायें राज़ सारे आज कुछ ऐसा हो

सूनापन

सूने जाते न थे तूमसे,दीन रात कै शिकवे मेरे कफन सरकाओ, मेरी बे-जूबानी देखते जाओ.

अनसुलझी लट

सुनो,,सुल्ज़हे बाल सूट नही करते तुमको, लटों में लटों का अटकना ,,,,अच्छा लगता है!

गणित-ए-इश्क

कुछ अलग सा है, इश्क़ का गणित...        यहाँ तुम और मैं दो नहीं,            "एक होते हैं" !