ख़ून अपना हो या पराया हो नस्ले-आदम का ख़ून है आख़िर जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में अमने आलम का ख़ून है आख़िर बम घरों पर गिरें कि सरहद पर रूहे-तामीर ज़ख़्म खाती है खेत अपने जलें या औरों के ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है टैंक आगे बढें कि पीछे हटें कोख धरती की बाँझ होती है फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग जिंदगी मय्यतों पे रोती है इसलिए ऐ शरीफ इंसानो जंग टलती रहे तो बेहतर है आप और हम सभी के आँगन में शमा जलती रहे तो बेहतर है।
#आने वाले दिन# काफी वक्त बीत गया बिना लिखे,तो सोचा फिर कुछ लिखा जाए।कलम को चलाया तो नीली स्याही अब खत्म हो चुकी थी। फ़ौरन दौरा किया दुकान का, (अमूमन जैसे किसी बड़ी घटना के बाद राजनेताओं के उस घटना स्थल पर।) दुकान में स्याही नहीं थी। कारण पूछा-तो दुकानदार साहब बोले कि सारी स्याही तो ले गए खादी धारी लोग। फिर कुछ गुड़मुड़ा कर बोले कि इतिहास तो अब वही लिखेंगे।कई और दुकानों की खाक छानी कुछ हासिल नहीं हुआ। मुझे लिखना था।तो आव देखा न ताव फ़ौरन अखबार के दफ्तर का रुख किया। इस आस में की भला उनके पास स्याही की क्या कमी नीली नही तो काली ही सही? दफ्तर शानदार........। फ़ौरन पूछा एक महोदय से स्याही मिल जाएगी थोड़ा बहुत। बड़े भौचक्के होकर मेरी तरफ देखा बोले बाहर से आये है क्या इंडिया में। रुककर बोले-आलाकमान से पहले लेटर में लिखवा के लेके आयो। मैंने पूछा-क्यों? तो बोले स्याही सरकार के पास है,हम तो बस छापते है फिर थोड़ा चुप हो गए..... ( तो मेरे दिमाग में जवाब आया छापते होंगे-नोट) रुक कर देर से जवाब आया "खबर"। फिर बोले-अब सरकार तय करती है,कब,कहाँ,कितनी स्याही लगेगी? दबी आवाज में ब
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